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वर्षा महोत्सव

वर्षा मंगल
संकलन

सावन




उमड़ घुमड़ घनघोर घटा बन
जब घिर-घिर के आए बदरिया
गरज-गरज घन दिल दहलाए
सावन का संदेस सुनाए
कड़क-कड़क कर नाच गगन में
चमक दमक इठलाए बिजुरिया।

चारों ओर घिरे अँधियारा
जग से भाग छुपे उजियारा
सनन-सनन झकझोर पवन में
पाँवों में बल खाए घघरिया।

अंबर से अमृत जल बरसे
सूखी धरती का मन हरषे
सावन की रिमझिम बरखा में
तन से लिपटी जाए चुनरिया।

कण-कण में हरियाली लाए
तपते तन की प्यास बुझाए
बन-बन में नाचे मयूर
मधुबन में गाए रंगरसिया।

उमड़-घुमड़ घनघोर घटा बन
जब घिर-घिर के आए बदरिया।

- पुष्पा भार्गव
05 सितंबर 2005

  

बरखा

किसी देवांगना के
स्नात केशों से गिरे मोती
विदाई में
अषाढ़ी बदलियों ने
अश्रु छलकाए
किसी की पायलों के घुँघरुओं ने
राग है छेड़ा
किसी गंधर्व ने आकाश
में पग आज थिरकाए

उड़ी है मिटि्टयों से सौंध जो
इस प्यास को पीकर
किसी के नेह के उपहार का
उपहार है शायद
चली अमरावती से आई है
यह पालकी नभ में
किसी की आस का बनता
हुआ संसार है शायद

सुराही से गगन की एक
तृष्णा की पुकारों को
छलकता गिर रहा मधु आज
ज्यों वरदान इक होकर
ये फल है उस फसल का जो
कि आशा को सँवारे बिन
उगाई धूप ने है
सिंधु में नित बीज
बो बो कर

- राकेश खंडेलवाल
5 सितंबर 2005

               

 

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