अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

        यह जीवन है संग्राम

 
यह जीवन है संग्राम प्रबल
लड़ना ही है प्रतिक्षण प्रतिपल
जिसने मन में गीता गुनली वह हार-जीत के पार गया
वह हार गया रण में जिसका लड़ते-लड़ते
मन हार गया

संख्या बल कभी नहीं लड़ता
लड़ते हैं सौ या पाँच कहाँ
सच के पथ पर निर्भीक बढ़ो
है नहीं साँच को आँच यहाँ
जो चक्रव्यूह गढ़ते उनके माथे पर लिखा मरण देखा
जो सुई नोक भर भूमि न दें उनका भी दीन क्षरण देखा
छल के ही साथ छली का तन, मन, चिन्तन,
अशुभ विचार गया

संकल्पों से टकराने में
हर बार झिझकती झंझाएँ
झरने की तूफानी गति को
कब रोक सकीं पथ बाधाएँ
जो लड़ते हैं वे कल्पकथा बनकर जीते इतिहासों में
सदियों के माथे का चुम्बन बनकर जीते अहसासों में
कवि का संवेदन विनत हुआ जब-जब भी
उनके द्वार गया

- रामसनेहीलाल शर्मा यायावर
१ अक्टूबर २०२१

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter