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अभिव्यक्ति  ७. ७. २००

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हम दीवानों की क्या हस्ती

हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास अभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले

किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले

दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले

हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी सी उर पर, ले असफलता का भार चले

हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले

अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बँधे थे, और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले

--भगवतीचरण वर्मा

इस सप्ताह

पुनर्पाठ में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

नई हवा में-

दोहों में-

पिछले सप्ताह
जून २००८ के अंक में

गीतों में- कुमार शैलेन्द्र

अंजुमन में- द्विजेन्द्र द्विज

छंदमुक्त में- अशोक गुप्ता

मुक्तक में-
बागेश्री चक्रधर

क्षणिकाओं में- सुषमा भंडारी

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