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अभिव्यक्ति २०. १०. २००८

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अंधकार बुहरें

  आँगन-आँगन दीप धरें
यह अंधकार बुहरें

होता ही आया तम से रण
पर तम से तो हारी न किरण
जय करें वरण ये अथक चरण
भू-नभ को नाप धरें

आँगन-आँगन दीप धरें
यह अंधकार बुहरें

लोक-हृदय आलोक-लोक हो
शोक-ग्रसित भव विगत-शोक हो
तमस-पटल के पार नोक हो
यों शर-संधान करें

आँगन-आँगन दीप धरें
यह अंधकार बुहरें

डूबे कलरव में नीरवता
भर दे कोमलता लता-लता
पत्ता-पत्ता हर्ष का पता
दे, ज्योतित सुमन झरें

आँगन-आँगन दीप धरें
यह अंधकार बुहरें

--डॉ. राजेन्द्र गौतम

दीपावली विशेषांक में

गीतों में-

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अंधकार बुहरें

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फिर दीवाली आई है

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दीप जलाओ

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दीपमाला

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अभिषेक

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दीप धरो

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दीप जलता है

हाइकु में-

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दीपावली हाइकु

हास्य व्यंग्य में-

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व्यंजल

शिशुगीतों में-

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फिर दीवाली आई रे

पिछले सप्ताह
१३ अक्तूबर २००८ के अंक में

गीतों में-
दिव्यनिधि शर्मा

अंजुमन में-
राजेन्द्र पासवान घायल

नई हवा में-
शामिख फ़राज़

छंदमुक्त में-
पंकज त्रिवेदी

मुक्तक में-
राज बहादुर 'विकल जलालाबादी'

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