| डोर वतन की 
						हाथ में जिसके मना रहा रंगरेली है
 
 सूखा सूखा
 हलक हमारा
 प्यास बहुत ही गहरी है
 सबको है मालूम नदी की
 धार कहाँ पर ठहरी है
 चुप हैं फिर भी लोग
 यही तो अनबुझ एक पहेली है
 
 गौण हुई है
 भूख गरीबी
 कुर्सी की बेताबी है
 बिन बादल बरसात हुई है
 फिर मौसम चुनावी है
 रोटी की चाहत में कितनी
 फैली हुई हथेली है
 
 डूब रही
 ख्वाबों की कश्ती
 रोज दलों के दल दल में
 सुधबुध खोकर हम बैठे
 मालूम नहीं किस जंगल में
 रहबर कोठेबाज समझिए
 संसद मूक हवेली है
 -शंभु शरण 
						मंडल |