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२७. १०. २०१४-

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कभी किसी दिन घर भी आओ

     

आते-जाते ही मिलते हो,
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!

चाय पियेंगे, बैठेंगे कुछ देर
हँसेंगे बतियाएँगे
कुछ अपनी, कुछ इधर-उधर की
कह–सुन मन को बहलाएँगे
बीच रास्ते ही मिलते हो
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!

मिलना-जुलना बात-बतकही,
हँसी-ठिठोली सपन हुए सब
बाँट-चूँटकर खाना–पीना
साझे दुख-सुख हवन हुए सब
रोज भागते ही मिलते हो
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!

ड्यूटी, टिफिन, मशीन, सायरन
जुता इन्हीं में जीवन सारा
जो है अपना दर्द बंधुवर
शायद वो ही दर्द तुम्हारा
बस मिलने को ही मिलते हो,
भाई थोड़ा वक्त निकालो
कभी किसी दिन घर भी आओ!

- जय चक्रवर्ती

इस सप्ताह

गीतों में-

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जय चक्रवर्ती

अंजुमन में-

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कमला सिंह ज़ीनत

छंदमुक्त में-

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अमरेन्द्र सुमन

माहिया में-

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ज्योतिर्मयी पंत

पुनर्पाठ में-

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रोहिणी कुमार भादानी



 

पिछले सप्ताह
दीपावली के अवसर पर
 २० अक्तूबर २०१४ के अंक में

गीतों, गजलों, छंदमुक्त, दोहों,
कहमुकरी, माहिया, सरसी तथा हाइकु छंदों और हास्य व्यंग्य की विधाओं में- विभिन्न रचनाकारों की ढेर-सी काव्य रचनाएँ।
 


 

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग :
कल्पना रामानी