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डा. रुख़साना सिद्दीक़ी

जन्म १५ अगस्त १९५९ को सतमढ़ी ज़िले के बैरगानिया शहर में।

शिक्षा : एम ए, बी एड़ पीएच डी

कार्यक्षेत्र : लेखन व अध्यापन। हिंदी पत्रिका हंस व उर्दू पत्रिका ज़बाने अदब में ग़ज़लें प्रकाशित, दैनिक आज में ताना बाना नाम स्तंभ और एक कैसेट गुलाब का मौसम एच एम वी द्वारा प्रकाशित।

संप्रति : गवर्नमेंट हाई स्कूल में उर्दू साहित्य का अध्यापन

ई मेल :
rajbhashapatna@rbi.org.in


  दो ग़ज़लें



कुछ तो रात का ग़म था लोगों कुछ मेरी तन्हाई थी
दिल तो मेरा अपना ही था लेकिन प्रीत पराई थी

अबके बरस ये कैसा मौसम कैसी रूत ये आई थी
बाहर सावन बरस रहा था अंदर मैं भर आई थी।

रस्ता जिसका तकते–तकते सावन सारा बीत गया
आनेवाले ने कहलाया मैं ज़ालिम हरजाई थी

बात अंधेरे में होती तो अपने ग़म को ढंक लेती
बाहर सूरज डूब रहा था आंख मेरी भर आई थी

आंसू आहें बिजली बादल और ये काले रंग तमाम
मैं अपनी किस्मत में लोगों रब से लिखवा लाई थी



किस कदर नादानियां दिन रात कर जाते हैं लोग
ज़ख्.म देते है दवा की बात कर जाते हैं लोग

आंखों में बस जाते हैं वो रोज़ काजल की तरह
बिन किसी मौसम के भी बरसात कर जाते हैं लोग

अब हमें रुसवाइयों का ख़ौफ़ क्योंकर हो भला
जब यही रुसवाइयां सौग़ात कर जाते हैं लोग

ग़ैर मेयारी–सी बातें खुलके कर सकते नहीं
कान में चुपके से घटिया बात कर जाते हैं लोग

१ दिसंबर २००६

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