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सुरेशचंद्र शौक

5 अप्रैल, 1938 को ज्वालामुखी (हिमाचल प्रदेश) में जन्मे ,एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त, श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' ए. जी. ऑफ़िस से बतौर सीनियर ऑडिट आफ़िसर रिटायर होकर आजकल शिमला में रहते हैं. तेरी ख़ुशबू में बसे ख़त... के सुप्रसिद्ध शायर श्री राजेन्द्र नाथ रहबर के शब्दों में: " 'शौक़' साहिब की शायरी किसी फ़क़ीर द्वारा माँगी गई दुआ की तरह है जो हर हाल में क़बूल हो कर रहती है. " शौक़' जी का ग़ज़ल संग्रह "आँच" बहुत लोकप्रिय हुआ है.

संपर्क- satpalg.bhatia@gmail.com

 

दो ग़ज़लें

एक

इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े
इक दस्तक को तरस रहे हैं अब दरवाज़े

कोई जा कर किससे अपना दुख—सुख बाँटे
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े

अहले—सियासत ने कैसा तामीर किया घर
कोना—कोना बेहंगम, बेढब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का
लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी है ग़ैरों के डर का
दस्तक पर भी खुलते नहीं हैं अब दरवाज़े

ख़लवत में भी दिल की बात न दिल से कहना
दीवारें रखती हैं कान और लब दरवाज़े

फ़रियादी अब लाख हिलाएँ ज़ंजीरों को
आज के शाहों के कब खुलते हैं दरवाज़े

शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं
लेकिन रूखे फीके बे—हिस सब दरवाज़े

कोई भी एहसास का झोंका लौट न जाए
'शौक़', खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े

दो

ग़म के सांचे में ढली हो जैसे
ज़ीस्त काँटों में पली हो जैसे

दर-ब-दर ढूँढ़ता फिरता हूँ तुझे
हर गली तेरी गली हो जैसे

हम तन गोश है सारी महफ़िल
आपकी बात चली हो जैसे

यूँ तेरी याद है दिल में रौशन
इक अमर जोत जली हो जैसे


तेरी सूरत से झलकता है ख़ुलूस
तेरी सीरत भी भली हो जैसे


आह! यह तुझसे बिछड़ने की घड़ी
नब्ज़—दिल डूब चली हो जैसे

‘शौक़’! महरूमी-ए-दिल क्या कहिए
हर ख़ुशी हम से टली हो जैसे

सितंबर २००८

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