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ज़हीर क़ुरैशी की तीन ग़ज़लें
 

तीन

लीक तोड़ी तो चल नहीं पाए,
लोग, रस्ते बदल नहीं पाए।

उसने रातों में जुगनुओं की तरह,
भय से उन्मुक्त पल नहीं पाए।

सोच में थी कहीं कमी कोई,
दुःख से बाहर निकल नहीं पाए।

तुम समझते रहे जिन्हें उर्वर,
फूल के बाद, फल नहीं पाए।

हमने सत्ता के साथ मिल कर भी,
हर समस्या के हल नहीं पाए।

एक बच्चे को शक्ल मिल जाती,
भ्रूण साँचे में ढल नहीं पाए।

सूर्य की कोशिशें हुईं नाकाम,
हिम के पर्वत पिघल नहीं पाए।

  एक

सबकी आँखों में नीर छोड़ गए।
जाने वाले शरीर छोड़ गए।

राह भी याद रख नहीं पाई
क्या... कहाँ राहगीर छोड़ गए?

लग रहे हैं सही निशाने पर,
वो जो व्यंगों के तीर छोड़ गए।

एक रुपया दिया था दाता ने,
सौ दुआएँ फकीर छोड़ गए।

उस पे कब्ज़ा है काले नागों का,
दान जो दान-वीर छोड़ गए।

हम विरासत न रख सके कायम,
जो विरासत 'कबीर' छोड़ गए।

दो

क्या पता था कि किस्सा बदल जाएगा,
घर के लोगों से रिश्ता बदल जाएगा।

हाथ से मुँह के अंदर पहुँचने के बाद,
एक पल में बताशा बदल जाएगा।

दो दशक बाद अपने ही घर लौट कर,
कुछ न कुछ घर का नक्शा बदल जाएगा।

वो बदलता है अपना नज़रिया अगर,
सोचने का तरीका बदल जाएगा।

चश्मदीदों की निर्भय गवाही के बाद।
खुद-ब-खुद ये मुकदमा बदल जाएगा।

लौट आया जो पिंजरे में थक-हार कर,
अब वो बागी परिंदा बदल जाएगा।

घर के अंदर दिया बालते साथ ही,
घुप अंधेरे का चेहरा बदल जाएगा।

१५ दिसंबर २००८

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