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शेख मोहम्मद कल्याण की
छंदमुक्त रचनाएँ
 

उड़ान

तुम कब तक
बन्द किवाड़ों से झाँकती रहोगी
उम्र की दरारों को फलाँगती-फलाँगती

जीवन की उलझी डोर से छूट
दूर पहाड़ों पर
चिड़िया की तरह उड़ जाओ न

मैं जानता हूँ
तुम रोज सूरज को चूल्हे पर चढ़ाने का
जोखिम उठाती हो
और हर रात बुनती हो
खुद को स्वेटर की तरह
फिर खुद ही
स्वेटर हो जाती हो।

बचा रहे गाँव

चाहता हूँ गाँव में
जिन्दा रहें तमाम गलियाँ
हुक्के की गुड़क जिन्दा रहे

पानी, रात बहती हवा
हर आदमी के लिए
तितलियाँ रंग बिखेरें
मुरझाए चेहरों पर
जुगनू रोशनी बन जाएँ

चाहता हूँ
यहाँ हर नींद सपनों के लिए हो
और कतई नहीं चाहता यह
रात ठहर जाए
उस बच्चे की आँखों में
जिसने इतिहास पढ़ना शुरू ही किया है
फिर वहाँ एक सपना तिरछा होकर लटक जाए।

प्रतिरूप

वह चाहते हैं
सूरज हथिया लें हमसे
बहती नदियां भी हों
उनकी गुलाम
वह चाहते हैं
हमारे जिस्म में
खून की जगह पानी भर दें
उबाल खाता खून देख उन्हें
डरावने सपने आते हैं

वह डरते हैं
उन इश्तिहारों से
जो एक दिन
सामने खड़े हो जाएँगे।

 


आशा की किरण

आशा की किरण
घुप्प अन्धेरे में भी
जगाई जा सकती है
आशा की किरण
बसाया जा सकता है
वीरानों में शहर
देखे जा सकते हैं
पक्षियों के घोंसले
सुनसान पहाड़ों पर

बर्फ होते होंठों पर
रखे जा सकते हैं अंगार
गाया जा सकता है
सुरीली तान छेड़ते हुए
जीवन दर्शन का गीत
लड़ी जा सकती है
एक निर्णायक लड़ाई
कभी भी,
शुरुआत की जा सकती है।


 

बाकी हैं अभी

यहाँ अब भी बसते हैं
शरीफ लोग, कद्रदान
यहाँ के बूढ़े
बैसाखियों के सहारे नहीं चलते
यहाँ अब भी गाए जाते हैं
हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल के गीत

फलक रोशनी में
रात की छाती चीरी नहीं जाती

सब कुछ तो है यहाँ
फिर क्यों
तुम्हारे भीतर
मौसम के गुलाब नहीं खिलते
झरने नहीं फूटते
बहती नहीं नदी
ऐसा हुआ क्या है
अब कौंधती नहीं
जुनूँ की बिजली तुम्हारे भीतर
क्या यह मान लें कि भीतर का हिरण
कुलाँचे भरना भूल गया है।

८ अक्तूबर २०१२

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