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जगदीश चंद्र शर्मा


 

  अस्वीकृति

कार्यालय में संपादक जी थक कर ऊँघ रहे थे
कुरसी पर बैठे बैठे ही पुड़िया सूँघ रहे थे

होली थी, लेखक ने उन पर जा छोड़ी पिचकारी
सब कागज़ रंगीन हो गये जैसे हो फुलवारी

संपादक जी ने गुस्से में त्यों ही कलम उठाई
हर धब्बे पर क्रास लगा कर अपनी धाक जमाई

बोल उठे, "कैसे लेखक हैं रंग छापने लाए
कभी न छपने दूंगा चाहें जो कुछ भी हो जाए

इन धब्बों ने स्वीकृति पत्रों पर भी डेरा डाला
स्वीकृत रचनाओं पर मानो पड़ा अचानक पाला

वे धब्बे जो संपादक जी पर भी खूब पड़े थे
लगता था संपादक जी के अस्वीकृत कपड़े थे

 
 

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