अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

डॉ शशि तिवारी

 

मन मछेरा हो गया

तुम हृदय के द्वार पर आए
उजेरा हो गया

आँसुओं ने एक लिख डाली कथा
थी छिपी जिसमें घरौंदे की व्यथा
किंतु तिनके बीन तुन लाए
बसेरा हो गया

इस जगत ने झूठ ही हमको दिया
हमने तेरी आँख से सच को पिया
अब निशा का तम भले छाए
सवेरा हो गया

तुम हृदय सागर तलक जाओ ज़रा
सीप के मोती उठा लाओ ज़रा
मन हमारा मीन बिन पाए
मछेरा हो गया

चल रहा हर पाँव तपती रेत पर
क्यों न सुस्ता लें ज़रा-सा खेत पर
रास्ते को क्या कहा जाए
लुटेरा हो गया

24 नवंबर 2007

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter