अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

शिव भजन कमलेश
 

  महानगर

अपने में ही उलझा उलझा दिखता महानगर
जैसे बेतरतीब समेटा पड़ा हुआ बिस्तर

सड़कें कम पड़ गईं गाड़ियाँ इतनी बढ़ी हुई
महाजाल बुन रही मकड़ियाँ जैसे चढ़ी हुई
भाग्यवान ही पूरा करते जोखिम भरा सफ़र
अपने में ही उलझा उलझा दिखता महानगर

इतने कुनबे बढ़े कि टिड्डी दल भी हार गए
जो दबंग परती नजूल की धरती मार गए
कुछ गुटखों के पाउच जैसे बिखरे इधर उधर
अपने में ही उलझा उलझा दिखता महानगर

कूड़ा कचरा बढ़ने की अपनी मजबूरी है
श्वान सुअर कौवों की रहना बहुत ज़रूरी है
पैकेट पॉलीथीन चबाकर गाय मरे अक्सर
अपने में ही उलझा उलझा दिखता महानगर

आपाधापी मची हुई आपस में तना तनी
राहगीर की राह देखती प्रायः राहजनी
किसका क्या लुट गया सवेरे आती रोज़ ख़बर
अपने में ही उलझा उलझा दिखता महानगर

पारदर्शिता ख़ातिर कपड़े और महीन हुए
बूढ़ी नज़रों तक के सपने फिर रंगीन हुए
विज्ञापित चेहरों ने भी तो बोया खूब ज़हर

16 नवंबर 2007

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter