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कार्यशाला-६
नवगीत का पाठशाला में इस माह आयोजित की गई छठी कार्यशाला जिसका विषय था कोहरा या कुहासा। कार्यशाला में नये पुरा
ने २३ रचनाएँ आईं। चु
नी हुई १६ रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

१- सौ सौ बार बधाई

चढ़ती धूप उतरता कुहरा
नव कोंपल अँखुआई
नए वर्ष में
नवगीतों की फिर बगिया लहराई

मन कुरंग
भर रहा कुलाँचें
बहकी गंध-भरी पुरवाई
ठिठुरन बढ़ी
दिशाएँ बाधित
चन्द्र-ग्रहण ने की अगुआई
फिर से आज बधाई!
सबको सौ-सौ बार बधाई!!

सारस जोड़ी
लगीं उतरने
होने लगीं कुलेलें
विगत साल की
उलझी गुत्थीं चोंच मिलाकर खोलें
मंत्र-मुग्ध हो गई किसानिन
सकुची, खड़ी, लजाई!
फिर से आज बधाई!
सबको सौ-सौ बार बधाई!!

-डा० जगदीश व्योम

 

४- भोर खड़ी दरवाजे पर

अंधियारे गलियारों
की सर्द हवाओं को तजकर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर
खड़ी दरवाजे पर

जाड़े की वो प्यारी बातें
दिन, बौना और
लम्बी रातें
ख़त डालकर अंगनाई में,
धूप बुनेगी सौ जज्बातें
उम्मीदों की
गठरी बाँधे,
ओस की बूँदों से सजकर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर
खड़ी दरवाजे पर

नानी माँ के तिल के लड्डू.
नुक्कड़ की वो
गरम जलेबी
गन्ने का रस गुड की ढेली,
भली लगे अमृत फल से भी
देर शाम तक
पुरवाई में
तफरी के दिन जाएँ गुजर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर
खड़ी दरवाजे पर

अरमानो के डालके झूले,
खेतों में फिर
सरसों फूले
हुलस हुलस कर अम्बर आए,
खुद अपने आनन को छूले
हौले से
मुसकाए धरती,
हरियाली की ओढ़ चुनर
कोहरे की चादर में लिपटी भोर
खड़ी दरवाजे पर

-नियति वर्मा

६- हवा में ठंडक

हवा में ठंडक बहुत है
काँपता है गात सारा
ठिठुरता सूरज बिचारा
ओस-पाला
नाचते हैं-
हौसलों को आँकते हैं
युवा में खुंदक बहुत है

गर्मजोशी चुक न पाए,
पग उठा जो रुक न पाए
शेष चिंगारी
अभी भी-
ज्वलित अग्यारी अभी भी
दुआ दुःख-भंजक बहुत है

हवा बर्फीली-विषैली,
नफरतों के साथ फैली
भेद मत के
सह सकें हँस-
एक मन हो रह सकें हँस
स्नेह सुख-वर्धक बहुत है

चिमनियों का धुँआ गंदा
सियासत है स्वार्थ-फंदा
उठो! जन-गण
को जगाएँ-
सृजन की डफली बजाएँ
चुनौती घातक बहुत है

नियामक हम आत्म के हों,
उपासक परमात्म के हों.
कोहरा
भास्कर प्रखर हों-
मौन में वाणी मुखर हों
साधना ऊष्मक बहुत है

-- संजीव सलिल

८- कोहरे में भोर हुई

कोहरे में
भोर हुई, दोपहरी कोहरे में!
कोहरे में शाम हुई, रात हुई कोहरे में!

कलियों के
खिलने की, आहट भी थमी हुई!
तितली के पंखों की, हरक़त भी रुकी हुई!
मधुमक्खी गुप-चुप है, चिड़िया भी डरी हुई!
भौंरे के
गीतों की, मात हुई कोहरे में!

सरसों कुछ
रूठी है, गेहूँ गुस्साया है!
तभी तो पसीना हर, पत्ती पर आया है!
खेतों में सिहरन का, परचम लहराया है!
मौसम पर
ठंडक की, घात हुई कोहरे में!

घर में
हम क़ैद हुए, ठंड-भरी हवा चले!
टोप पड़े सिर पर तो,मफ़लर भी पड़े गले!
दौड़ रहे दबकर हम, कपड़ों के बोझ तले!
कपड़ों की
संख्या भी, सात हुई कोहरे में!

भुने हुए
आलू की, गंध बहुत मन-भाती!
चाय-भरे कुल्हड़ से, गर्माहट मिल जाती!
आँखों ही आँखों में, बात नई बन जाती!
साँसों से
साँसों की, बात हुई कोहरे में!

-- रावेंद्रकुमार रवि

१०- मन सिहरा जाए

तन सिहरे
मन सिहरा जाए

सावन बीत गया
मैं प्यासी
अब सर्दी में घोर उदासी
ठिठुर गए हैं सपने अपने
अरमानों
पर कोहरा छाए

धुंध घिरे
पाला जो बरसे
तेरे लिए दो नैना तरसे
सीने से आँचल छीने जब
बेदर्दी
ये सर्द हवाएँ

साँझ हो
या भिनसार सँवरिया
कठुआए कमसिन उमरिया
पोर पोर में पीर विरह की
मीठा-
मीठा दर्द जगाए

पल पल
पाछ रहा है पछुआ
जैसे डंक लगाए बिछुआ
बर्फ हुआ है रक्त नसों का
जाने कब
साँसे थम जाए

--शंभु शरण मंडल

१२- कोहरा यह कब हटेगा

कोहरा
यह कब हटेगा।

चल रही ठंडी हवाएँ,
हड्डियाँ तक भेद जाएँ,
भास्कर का ताप सबको बराबर
किस दिन बटेगा।
कोहरा
यह कब हटेगा।

बिक रही हैं आत्माएँ,
मिट चली हैं आस्थाएँ,
अनाचार, अन्याय, अत्याचार
का घन कब छटेगा।
कोहरा
यह कब हटेगा।

हो रहा शोषित का शोषण,
बने निर्धन और निर्धन,
दु:खी पीड़ित मानवों का किस दिवस
संकट कटेगा।
कोहरा
यह कब हटेगा।

--राकेश कौशिक

१४-धुंध है अंधेरा है

धुंध है अंधेरा है
नभ से उतर कोहरे ने
धरा को घेरा है

दुबके पाँखी
गइया गुम-सुम
फूलों से भौंरे
तितली गुम
मौसम ने मौन राग छेड़ा है

मजूर ठिठुर कर
अलाव ताप रहे
पशु पंछी पौधे
थर-थर काँप रहे
धुंधला-सा आज सवेरा है

रेल रुकी
उड़ते अब विमान नहीं
फ़सलें सहमी
खेतों मे दिखते किसान नहीं
कोहरा लगा रहा फेरे पर फेरा है

सूरज की
किरन हुईं गाइब
चंदा घर जा
बैठा है साहिब
सब जगह कोहरे का डेरा है

--श्याम सखा 'श्याम'

१६- सुबह

रोशनी
के नए झरने
लगे धरती पर उतरने

क्षितिज के तट पर
धरा है
ज्योति का
जीवित घड़ा है
लगा घर-घर में नए
उल्लास का सागर उमड़ने

घना कोहरा
दूर भागे
गाँव
जागे, खेत जागे
पक्षियों का यूथ निकला
ज़िंदगी की खोज करने

धूप निकली, कली
चटकी
चल पड़ी
हर साँस अटकी
लगीं घर-दीवार पर फिर
चाह की छवियाँ उभरने

चलो, हम भी
गुनगुनाएँ
हाथ की
ताकत जगाएँ
खिले फूलों की किलक से
चलो, माँ की गोद भरने

--नचिकेता


कार्यशाला-
१ फरवरी २०१०

२- कुहासे से घिरा दिनमान

मन कुहासे से घिरा दिनमान
खोता जा रहा पहचान

शून्य वन में राह भूले पथिक-सी
लाचार मानवता
सभ्यता के मंच पर अध्यक्ष हित
तैयार दानवता
बुद्धिवादी सिर फिरा इन्सान
होता जा रहा पाषाण

साँझ सूने घाट पर बैठा हुआ
धीवर बना मानव
मछलियों को फाँसने को ढूँढता
तरकीब बन दानव
सिर्फ पाने के लिए सम्मान
खोता जा रहा ईमान

--गिरिमोहन गुरु

३-तेरी याद सताए

खिले धूप, यदि छटे कुहासा
फिर बगिया लहराए,
देखें जब हरियाली अंखियाँ
रूप तेरा मन आए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

होठों पर हैं कम्पन, केवल
गीतों के हैं बोल नहीं,
घना कुहासा, व्याकुल मन है
व्याकुलता अनमोल नहीं?
किरणों-की मुस्कान तिहारी
उसको धुंध छिपाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

घने धुन्ध में रूप तुम्हारा
सिमट-सिमट कर आया,
जिसे देख भारी होता मन
थोड़ा-सा शरमाया।
सुरभि तुम्हारी तिरे चतुर्दिक
पवन उसे बतलाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

द्वारे सजी रंगोली रह-रह
मुझसे करे ठिठोली,
बूँद ओस की झूल रही है,
पाती-पाती डोली।
मधुर मिलन की मनोकामना
मन ही मन इठलाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

सूरज को तो गहन लगा है
दिल में बढा अंधेरा,
दोपहरी में मध्य निशा ने
डाल रखा है डेरा।
तेरा रूप रोशनी माँगे
झलक जो तू दिखाए,
सरदी के इस मौसम में अब
तेरी याद सताए।

--मनोज कुमार

५- सच्चाई की सड़क पर

सच्चाई की सड़क पर है
झूठ का कुहासा।

स्वार्थों की ठंड बढ़ती
ही जा रही है हर-पल,
परहित का ताप सोया
ओढ़े सुखों का कम्बल;
हैं प्रेम के सब उपले
अब दे रहे धुँआ-सा।

सब मर्सिडीज भागें
पैसों की रोशनी में,
ईमान-दीप वाले,
डगमग बहें तरी में
बढ़ती ही जा रही है,
अच्छाई की हताशा।

घुटता है धर्म दबकर
पाखंड की बरफ से,
तिस पर सियासतों की
आँधी सभी तरफ से
कुहरा बढ़ा रही है,
नफरत की कर्मनाशा।

पछुआ हवा ने पाला
ऐसा गिराया सबपर,
रिश्तों के खेत सारे
अब हो गए हैं बंजर
आएँगी गर्मियाँ फिर,
है व्यर्थ अब ये आशा।

-धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन'

७- स्वागत

आए हो सिहराते
शिशिर के सिपहिये
हमने लो!
द्वार धरे मंगलमय सातिये

कोहरे की
साडी में लिपटी धवलता,
दातों के बीन बजे गीत में नवलता.
हिमगिरि से
ले आए बर्फ भरीं पेटियाँ,
धरती के आँगना,
धर कर, तुम चल दिए

दिखलाते
हमको हो झीनी चंदरिया,
कहाँ धरी सूरज की भेजीं रजाइयाँ.
सरगम को छोड़
कहीं निःस्वर क्यों हो गए,
सांसों का स्पन्दन
ठहरा कर चल दिए

कितनी
विसंगतियाँ कितनी हैं उलझनें,
जूझता रहा जीवन जाने न सुलझनें
रूखे अन्तस्तल
में शीतलता भर गए,
तन्द्रा तब टूटी
झकझोर कर चल दिए

--निर्मला जोशी

९- हिम नदी में कूदकर

हिम नदी में कूदकर मौसम
इन दिनों ज्यों स्नान करता है

हर तरफ है एक कुहरा आवरण
आग ने भी शान्ति-सी कर ली वरण
सूर्य खुद मफलर गले में बाँध
शीत का ऐलान करता है

हिम नदी में कूदकर मौसम
इन दिनों ज्यों स्नान करता है

शाम होते ही जगे सोये सपन
ढूँढते हैं शयन शैया में तपन
एक कोने में दुबक दीपक निबल
शीत का गुणगान करता है

हिम नदी में कूदकर मौसम
इन दिनों ज्यों स्नान करता है

--गिरिमोहन गुरु

११- सर्दी में

सर्दी में
सूरज की गुम हुई गरमाई
कोहरे की चादर ली
धुंध की रजाई

जाड़ा है पाला है
हल्की-सी दुशाला है
छुट्टी का नाम नहीं खुली पाठशाला है
सुबह-सुबह उठने में कष्ट बहुत भारी
और सजा की जैसी
लगती है पढ़ाई

सब कुछ है
धुँधला-सा गीला-सा सब
नाक कान मुँह ढाँके लगते सब अजब
धुआँ-धुआँ आता है जब भी कुछ बोलो
चुप रहना आता नहीं
क्या करें हम भाई

धूप की धमक पर
लग गया ग्रहण कोई
चंदा भी चुप होकर कर रहा है प्रण कोई
तारे अब आते नहीं शायद ननिहाल गए
जाने कब आएगी वसन्त
लिए पुरवाई

--सिद्धेश्वर सिंह

 

१३- धुँधली धूप

घना घनेरा कोहरा छाया
धरती ढूँढ़न निकली-
धूप
अम्बर-
गलियाँ भूल भूलैया
भूली भटकी फिरती धूप

हिम शिखरों पर शिशिर-सुहाने
द्वारपाल से आन खड़े
सूरज ने साँकल खटकाई
सुनती घाटी
कान धरे
किरण डोर
से बँध कर आई
थकी-थकी अलसाई धूप

सिमटी सहमी धार नदी की,
शर-सा चुभता शीत
थर-थर काँपें ताल तलैया
ठिठुरन से
भयभीत
गर्म दुशाला
ले कर आई
ओढ़ाती, सहलाती धूप

सी-सी सिहरें वन और उपवन
गाँव-गाँव अलाव जले
हीरक कणियाँ झूला बाँधें
हिम कण घुलते
पाँव तले
पीली मेंहदी
घोल के लाई
लीपे आँगन-देहरी धूप

धरती के
घर मिलने आई
धुँधले पथ पर चलती धूप

--शशि पाधा

१५- ओढ़ कुहासे की चादर

ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी
ऊँघ रहा सतपुडा
लपेटे मटमैली खादी

सूर्य अँगारों की सिगडी है
ठण्ड भगा ले भैया
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया
तुहिन कणों को हरित दूब
लगती कोमल गादी

कुहरा छाया संबंधों पर
रिश्तों की गरमी पर
हुए कठोर आचरण अपने
कुहरा है नरमी पर
बेशरमी नेताओं ने
पहनी-ओढी-लादी

नैतिकता की गाय काँपती
संयम छत टपके
हार गया श्रम कोशिश कर
कर बार-बार अबके
मूल्यों की ठठरी मरघट तक
ख़ुद ही पहुँचा दी

भावनाओं को कामनाओं ने
हरदम ही कुचला
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फँसा, फिसला
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी

बसते-बसते उजड़ी बस्ती
फ़िर-फ़िर बसना है
बस न रहा ख़ुद पर तो
परबस 'सलिल' तरसना है
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी

हर 'मावस पश्चात
पूर्णिमा लाती उजियारा
मृतिका दीप काटता तम की
युग-युग से कारा
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी

-आचार्य संजीव 'सलिल'

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