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मालवा की मिट्टी में मोगरा: छह कविताएँ
 


वह भीड़ में अकेला था

जहाँ लगी थी रंगों की चमकीली दूकान
और गर्म था दिखावों का शोर भरा बाजार
वह वहाँ अपनी आत्मा का उजास लिए चुपचाप खड़ा था

भँवरों, तितलियों को
उसमें कोई रूचि न थी

दुनिया के सारे बाजार जब झपकी ले रहे थे
धरती पर कुछ तारे उतरे
उनकी महक से चाँद
पूरी रात आबाद रहा।


इस तरफ न आना
मालवा में अभी चौमासा है
काली मिट्टी के सीने की दरारों में पानी भरा है
इस पर पाँव रखोगे तो गहरे उसके दुःख में डूब जाओगे
अभी कुछ दिन हुए यहाँ अफीम की फसल पर ओले पड़े थे
और बह गया था सारा अमल डोड़े के घाव से
यह धरती दुःख के नशे में बुदबुदा रही है
खेत की मेड़ के किनारे
ये श्वेत पुष्प देखते हो
ये उसकी आँख के मोती हैं
बारिश होती है
और ये महकते हैं
और खेत सब कुछ भूल
मक्की के बीजों में जान डालने लगता है


ठाकुर जी के लिए
उसने अंजुरी भरी थी मोगरे की कलियों से
पर मूर्ति तक नहीं थी पहुँच उसकी
पुजारी ने कहा था रख दो वहीं दान पेटी पर
किसी की आस्था महकती है क्या
यह तो उनका हाथ ही है सर पर
कि उँगलियाँ इत्र हुई जाती हैं
लगा ठाकुर जी ने कुछ कहा
शायद अगले बरस ब्याह सकूँ कुएँ की तुलसी
चुका सकूँ कुछ ब्याज
मूल के लिए तो है ही ये सारा जीवन बाकी


जब वे उतरे
रात की काली चादर बिछी थी
उनने छूआ उसकी तपती देह को
पृथ्वी की साँसों में घुली कुछ ठंडक
उनकी गंध से याद हो आया
समय में विलीन हुआ एक स्पर्श
कोई उस जहाँ से लौट आया
जहाँ जाकर
सब तारा बन जाते हैं


इस समय में रंग लेकर जीना
हर पल खतरे में जीना है
और लाल को लाल और हरे को हरा कहना
रंगभेद से इत्तेफाक रखना
ऐसे में काफी है बचा कर रखी हुई
अंतस में अपने होने की एक गंध
कोई भी रंग बात करे दुःख में पास आकर
जान सके
बस तुम्हारा एक मनुष्य सा होना
बस इतनी ही तटस्थता की दरकार है
इस समय में


हरे लुगड़े पर सफ़ेद छींट
प्रेम से महमहाती आत्मा
देहरी पर बालती है चाँद का दिया
सूरज के दुनिया में लौट जाने तक
इस रात में प्रेम के सिवा कुछ नहीं

- परमेश्वर फुंकवाल
२२ जून २०१५

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