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बेला के फूल
 

सखि सुन तो सही.
साँझ काजर हुई
आँख बादर हुई लाल चादर मुई,
चित्त उडती रुई
बूँद बरखा चुई लाज तन की छुई,,

प्रीतम की डोर
करे मन में हिलोर
मौन मन का दही.

रोज पटिया परी
मौन मिश्री गरी याद में कुछ धरी,
फूट कुछ फुलझरी
कुछ रही अधमरी कुछ दुवारे धरी

बेला के फूल
गए जूड़े में झूल
गंध अब भी वही.

सास शीतल बनी
है ससुर मधुबनी देवरों ने गुनी,
जो ननद ने सुनी
बात वो अनमनी धूप सी गुनगुनी

निंदिया न रैन
हुई सेजिया बेचैन
गाँव भर बतकही

- अशोक शर्मा
१५ जून २०१५

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