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बतियाता है रात रात भर
 

उचक-उचक कर करे प्रतीक्षा
बेला जाने किसकी
सुरभित मन-
आँगन के द्वारे
लग जाती है हिचकी

बतियाता है
रात-रात भर
छेड़े मन के साज
अंतस की खोली में बैठा
भूल रहा है लाज

वैसे अच्छी
लगती बातें
करता है वो जिसकी

मंदिर के
द्वारे आ बैठे
पावन मन कर जाए
मीरा की अलकों में आकर
सपने नये जगाए

झुमके से
हँस कर बतियाये
हँसी रुके ना उसकी

विरह-वेदना
की अग्नि में
जो मनवा हैं पलते
बेला की सुरभित बेला में
उनके तन-मन जलते

जबकि बेला
की साधे हैं
देखो सारी रस की

- गीता पंडित
१५ जून २०१५

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