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जबसे बेला महके
 

नर्म हुए दिन, रातें मधुरिम
बागों जब से
बेला महके

मालिन सारे काज छोड़कर
चुनने फूल चली दीवानी
आखिर इन अपनों ने ही तो
सींचा बचपन और जवानी

नज़रों नूर, वदन नूरानी
मचल रहे हैं भाव
हृदय के

इन फूलों ने गजरे गूँथे
देवों के हित हार बनाए
लाख गुलाबों को गुमान हो
मुझको तो बेला ही भाए

रूप-रंग श्वेताभ, गंध मृदु
क्यों न कलम मेरी
फिर बहके

जब बहार बेला पर छाती
डालों कली-कली मुस्काती
मंद- मंद भीनी सुगंध से
प्रणय, मिलन के गीत सुनाती

खुशबू देकर ले जाती है
पीर भरे पल पवन
विरह के

- कल्पना रामानी
१५ जून २०१५

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