अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

रात खिला बेला
 

स्वप्न खिले चम्पा-से
रात खिला बेला
केश में वधूटी के
सजा गंध-मेला

बातें हैं अर्धमुकुल
कलियाँ कचनारी
नैनों में रेख खिंची
मोहक रतनारी
वेणी से रात-रात
कौन कहो खेला

बेला की वेणी में
फूल इक गुलाबी
करता है स्वप्नमयी
रात को शराबी
चन्दनी हवाओं का
आन जुटा रेला

खेलता अँगुलियों से
दुग्ध-धवल गजरा
वेणियाँ दिखातीं ये
रोज़-रोज़ नखरा
कहो सखि! नखरा ये
किसने है झेला

बातों के ताम-झाम
तकिए के नीचे
रखते हैं सुबह-शाम
आँखें ही मींचे
उसका गह संग-साथ
छोड़ सब झमेला

थोड़ी-सी बेला के
गजरे की, देह की
खुशबू दे थोड़ी-सी
अपने सनेह की
तूने कह सखि! सजन
कौन देश ठेला

बेला के फूलों की
गंधमयी खेती
साँसों का रोज़-रोज़
साथ नहीं देती
गंध ये सताएगी
जानकर अकेला

खिलते कब रोज़-रोज़
बेला के पौधे
आँखों में स्वप्न वही
गंध-भरे कौंधे
मधु के रस-भोग बीच
आ जुटा करेला

सपनों में बेला की
पाँखुरी सजी-सी
कानों में प्रीतम की
बाँसुरी बजी-सी
समझा कब नेह-राग
ऊँघता तबेला

- पंकज परिमल
१५ जून २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter