अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

खिल उठा है मोगरा
 

तन बेला सा
महका महका
मन मैला मैला

चेहरों पर
लम्बी मुस्कानें
फिरते चिपका कर
दिल में नागफनी के काँटे
रखते चमका कर

वानप्रस्थ की उमर
दिख रहे हैं
बाबू छैला

कहीं मालती
कहीं मोगरा
कहीं रातरानी
खुशबू घर के पीछे
गंदे नाले का पानी

वहीँ कहीं
माली का लटका
है गमछा थैला

रोज फूलघर
में रहता है
ये बुधिया माली
फूलों की सुगंध से लेकिन
उसका घर खाली

बस अभाव का
गोबर रहता
घर भर में फैला

- डॉ प्रदीप शुक्ल
१५ जून २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter