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मोगरे की गंध सबको भा रही
 

रात रानी अल सहर मुरझा रही
डाल पर कलि मोगरा इठला रही

खुशबुएँ अपनी लुटा इतरा रही
क्या गज़ब कलि मोगरा बरपा रही

इन हवाओं से कहो बहकें नहीं
बाग़ में कुछ गंध मादक छा रही

तितलियों में गुफ़्तगू होती लगे
आज भँवरों की क़यामत आ रही

टूटकर मधुकामिनी बिखरी धवल
बंद पलकें कर कुमुद सुस्ता रही

केतकी चंपा चमेली हैं गुलाब,
मोगरे की गंध सबको भा रही

गूँथ जूड़े वेंणियों को नाजनीन
इल्तजा-ए-वस्ल चुप फरमा रही

है गुमाँ सर देवता के चढ़ सके
प्रेमियों के राज़ सब बतला रही

हो फ़ना सर्वस्व अपना झोंककर,
इत्र बनकर अब फिज़ा महका रही

लो उतर कर बाग़ में तारे खिले,
शुभ्र गुच्छों में द्युति दमका रही

मरकतों के बर्क पर हीरे जड़े,
हुस्न कलि बेला गज़ब‘हरि’ढा रही

- हरिवल्लभ शर्मा
२२ जून २०१५

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