अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

गुलमुहर की छाँह वाले दिन

 

 

आ गए फिर
गुलमुहर की छाँह वाले दिन
अचानक आ गए !

सुर्ख़ियों में
रंग रहे चेहरे
दहकते पलाशों की
हरी शाखें लचक कर पूछतीं
उपलब्धि पिछली तलाशों की
समूची गंध को
उन्मुक्त करती बाँह वाले दिन
अचानक आ गए !

बसंती साँझ के
प्रतिबिम्ब
तालों में उगे होंगे
उतरती धूप का हंसा
अकेला उड़ गया होगा
कहीं मोती चुगे होंगे
कसक बुनते हुए
सुकुमार अंतर्दाह वाले दिन
अचानक आ गए !

आ गए फिर
गुलमुहर की छाँह वाले दिन
अचानक आ गए !

- डॉ. श्याम निर्मम
१५ अप्रैल २०१८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter