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गुलमुहर की छाँव में

 

गर्म रेत पर
चलकर आए छाले पड़ गए पाँव में
आओ पलभर पास में बैठो गुलमोहर
की छाँव में

नयनों की मादकता देखो
गुलमोहर में छाई है
हरी पत्तियों की पलकों में
कलियाँ भी मुस्काईं हैं
बाहें फैला बुला रहे हैं हम सबको
हर ठाँव में

चार बरस पहले जब इनको
रोप-रोप हरसाए थे
कभी कीट से कभी शीत से
कुछ पौधे मुरझाए थे
हर मौसम की मार झेल ये बने
बाराती गाँव में

सिर पर बाँधे फूल मुरैठा
सज-धजकर ये आए हैं
मौसम के गर्म थपेड़ों में जी भर कर मुस्काए हैं
आओ हम इन सबसे पूछें कैसे हँसें अभाव में

- रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'
१६ जून २००६ 

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