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इक कमल था

  इक कमल था,
कीच पर जो मिट गया।

लाख आईं तितलियाँ,
ले पर रँगीले,
कई आये भौंर,
कर गुंजन सजीले,
मंदिरों ने याचना की सर्वदा,
देवताओं ने चिरौरी की सदा,
साथ उसने
पंक का ही था दिया।
इक कमल था,
कीच पर जो मिट गया।

कीच की सेवा,
थी उसकी बंदगी,
कीच की खुशियाँ,
थीं उसकी जिंदगी,
कीच के दुख दर्द में वह संग खड़ा,
कीच के उत्थान की ही जंग लड़ा,
कीच में ही
सकल जीवन कट गया।
इक कमल था,
कीच पर जो मिट गया।

एक दिन था
जब कमल मुरझा गया,
कीच ने
बाँहों में तब उसको लिया,
प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर,
पंक ने छिड़का जो नीची कर नज़र,
कीच सारा,
कमल ही से पट गया।
इक कमल था,
कीच पर जो मिट गया।

- धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’
२१ जून २०१०

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