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           एक तुम्हीं से

 

 

आँगन मेरा महक रहा है
एक तुम्हीं से रजनीगंधा

पाकर पावन परस तुम्हारा
मन सपनों में खो जाता है
किरण लिपटती बड़े भोर से
और दिवस भी मुस्काता है
लगता डैनों को फैलाये
खगकुल सारा चहक रहा है
एक तुम्हीं से रजनीगंधा

पवन पिरोकर गंध तुम्हारी
जब चुपके से ले आता है
मृदुल मनोहर संस्पर्शों की
कुछ सौगातें दे जाता है
गहन वेदना पीड़ा में भी
मन सोने सा दमक रहा है
एक तुम्हीं से रजनीगंधा

जाने कितनी बार लिखा है
किन्तु पढ़ा इक बार नहीं
लगे विहँसने जब अक्षर तो
मुझे मिली तुम खड़ी यहीं
प्रीति गंध के अहसासों का
रस गागर नित छलक रहा है
एक तुम्हीं से रजनीगंधा

- श्रीधर आचार्य "शील"
१ सितंबर २०२१

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