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प्यारे शिरीष
 

रंग बिखरे, बाग निखरे, जब खिले प्यारे शिरीष।
गाँव तक चलकर शहर, सब देखने पहुँचे शिरीष।

खुशनसीबी है कि हैं, परिजन मेरे भी गाँव में
देके न्यौता ग्रीष्म में, मुझको बुला लेते शिरीष।

ताप का संताप देता, जेठ जब हर जीव को
तब बहा देते चमन में, सुरभि के झरने शिरीष।

डालियाँ नाज़ुक हैं इनकी, पर इरादे वज्र से
नाजनीनों को झुलाते, झूल बन, भोले शिरीष।

जल जलाशय दें न दें, परवा इन्हें होती नहीं
बल्कि अपने दम पे मौसम, नम बना देते शिरीष।

लख अतुल सौन्दर्य इनका, दौड़ती हर लेखनी
और कविताओं में गुंथते, काव्य के गहने शिरीष।

मन नहीं होता कि वापस, छोड़ इन्हें जाऊँ शहर
कब मिलें फिर ‘कल्पना’ये, आज के बिछड़े शिरीष।

- कल्पना रामानी  
 
१५ जून २०
१६

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