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सखा शिरीष
 

तुम्हारे रूप को निहारती
बैठी तुम संग
भूली लिखना-पढना
बस सुनती रही

तुम्हारी नन्हीं नन्हीं फलियाँ
थिरकतीं उंगलियों सी
हवा संग
जाने क्या-क्या गुनगुनाती रहीं
सँवारती तुम पर
टँके फूलों को

तुम्हारे स्पर्श से
रोम-रोम खिलता
तेज़ धूप में खड़े शीतल
छाया देते
यह रूप तुम्हारा
छू जाता तन-मन को

तपती लू में भी कैसे
खिले से हो
मुझे भी अपना यही
रूप और गुण
दे दो ना! हे सखा शिरीष!
काम आऊँ मैं भी
तुम जैसी बन कर!

- मीनाक्षी धन्वंतरि  
 
१५ जून २०
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