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शिरीष के पेड़
 

चली गयी है ऋतु बसंत की
सूरज बाबा खूब तपे हैं
सिर पर धूप सही है दिन भर
तब शिरीष में फूल खिले हैं

गरम थपेड़े खाती लू के
धूल और अंधड़ की बस्ती
पीले और हरे फूलों से
है शिरीष पर छाई मस्ती

पथिकों के स्वागत को आतुर
बनकर के कालीन बिछे हैं

दिखते हैं मुश्किल से हमको
संख्या इनकी आज घट रही
जाने मानव क्यों गुस्सा है
उसकी इससे नहीं पट रही

काट रहा वो लिये कुल्हाड़ी
कातर दृष्टि लिए खड़े हैं

फूल और पत्ते हैं कोमल
पंछी को भी ठाँव दे रहे
झेल रहे खुद सारी गरमी
भरी धूप में छाँव दे रहे

मिलकर हम सब इन्हें बचायें
जो शिरीष के पेड़ लगे हैं

- बसंत कुमार शर्मा

१५ जून २०
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