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मैं शिरीष हूँ
 

मैं शिरीष हूँ
स्वाभिमान से, खड़ा हुआ हूँ

घना-घना सा बहुत मगर
टूटा-टूटा सा,
फूल-पात-फलियाँ छूटे
हूँ लुटा-लुटा सा

मैं शिरीष हूँ
बाहर घर के, पड़ा हुआ हूँ

किंचित आँधी-पानी का-
भय नहीं सताता,
साथ सदा से विकट धूप
का रहा लुभाता

मैं शिरीष हूँ
जीवटता से, अड़ा हुआ हूँ

मैं विपरीत परिस्थिति भी
मुट्ठी में गह लूँ
ताप-शीत से परे मौन रह
हर दुख सह लूँ

मैं शिरीष हूँ
समर समय से, लड़ा हुआ हूँ

करूँ भला जग का मिटकर
अंतिम साँसों तक
विमुख हुए आख़िर क्यों तुम
प्रिय था मैं कल तक

मैं शिरीष हूँ
अब तक तुमसे जुड़ा हुआ हूँ

- डॉ. भावना तिवारी

१५ जून २०
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