अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

ओ शिरीष !
 

सो रहे इस दोपहर में
ओ शिरीष! क्यों
तुम अकेले जागते हो।

ताप ने फैलाया आतंक
बिसर रहे राग और छँद
लटके हैं प्राण मीन के भी
बूँद भर जल का है दँद

सर छुपाने किसी क्रोटर में
ओ शिरीष! क्यों
तुम अकेले नहीं भागते हो।

सूख गये नदी और ताल
सूखे सब तरू, ताल-तमाल
जीवन पर सूरज का घात
बचा रहेगा अब बस अकाल

कहाँ पाया रसरंगी यौवन
ओ शिरीष! क्यों
सुगन्ध की दवा बाँटते हो।

स्वाँस पर है बैठ गया पहरा
जल बिन शीत हुआ बहरा
अधीरज ने फैलाकर पंख
आघात को कर दिया गहरा

आकर्षक श्वेत, पीत वसना
ओ शिरीष! क्यों
पुष्पों की लड़ी टाँगते हो।

- सुरेश पांडा

१५ जून २०
१६

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter