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आज देर रात
 
शीशम !
आज देर रात
तुम्हारे पास से गुजरी
थका तन बोझिल मन लिये
रात के सन्नाटे में अंधेरे से डरती हुई
अनायास ही तुम्हारे फूलों की
भीनी -भीनी गन्ध ने
चारो ओर से घेर लिया
मैं अकेली हो कर भी अकेली नहीं रही
प्रतीत हुआ बचपन की सखियों से घिरी हूँ
किसी ने मन गुदगुदा दिया
जी चाहा हँसूँ
खिलखिला कर हँसूँ
पर दिमाग बोला
पगली! कोई सुन लेगा तो पागल कहेगा
चल चुपचाप अपने रास्ते
याद आया माँ कहती थीं
भले घर की बेटियाँ
साँझ ढलने के बाद घर के बाहर नहीं निकलतीं
पर क्या करूँ तप रही हूँ कुछ अपनों के लिये
शीशम ! तुम सड़क के किनारे
मौन खड़े रहते हो
एक तपस्वी की तरह
दिन भर के शोर-शराबे, धुआँ, प्रदूषण, उपेक्षा
झेलते हुए
फिर भी कोई शिकायत नहीं
मिट कर भी
दूसरों के लिये सुख का साधन बन जाते हो
कभी-कभी लगता है मैं भी शीशम ही हूँ
तपूँगी, भीगूँगी
अपनी ही खुशबू से नहा कर
आत्म-मुग्धा सी
प्यार के गीत गाऊँगी
और एक दिन खो जाऊँगी अनन्त में
शीशम ! मेरे शीशम तुम यूँ ही खुशबू बिखराते रहना

- मधु प्रधान
१ मई २०१९

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