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शीशम अब नही पैदा होता
 
कत्थाई-काली
लकड़ियों को मैंने देखा है
हर उस इमारत में
जिनके हौंसलें आसमानी बुलंद थे
और अपना एक जंगल था
शीशम के पेड़ों वाला
दरवाजों से लगाकर शृंगार-दान तक सब
मज़बूत, सख्त

जबसे,
जंगलों में उगने लगी हैं कांक्रीट
और जानवर शहरों में रहने लगे हैं
शीशम,
नही पैदा होता है जंगलों में
शायद वो आग ही रही नही
ना ही धरती में वो दम बचा है

शीशम,
अब पाया जाता है घरों में
निशानियों की तरह ड्राईंगरूम में सजे हुये
या कबाड़ में बदले हुये
किसी टाँड़ पर या सीढियों के नीचे
जैसा भी है साबुत, कसा हुआ या टूटा
उतना ही मज़बूत है अब भी
आज इंसान खोखले होने लगे हैं

- मुकेश कुमार तिवारी
१ मई २०१९

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