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सड़क किनारे शीशम
 
धीरे-धीरे सड़क किनारे
बड़ा हुआ शीशम
अपने ही बलबूते पर तो
खड़ा हुआ शीशम

आश्रय दिया सदा पंछी को
राहगीर को छाया
दिन भर जितना तपा धूप में
उतना ही हरियाया
सूरज उगले आग, सामने
अड़ा हुआ शीशम

कमरों में उसकी लाशों पर
कितनी हुईं सभाएँ
सबने कहा जरूरी है यह
आओ इसे बचाएँ
सुनता रहा मनोरम बातें
पड़ा हुआ शीशम

चली कुल्हाड़ी, आरी, रंदा
ठोकी कील गई
भटका था दर-दर लेकिन, कब
सुनी अपील गई
दरवाजे पर पत्थर के संग
जड़ा हुआ शीशम

उसकी हिम्मत बड़ी गज़ब की
लिया सभी से लोहा
भिन्न-भिन्न रूपों में ढलकर
सबका ही मन मोहा
देखा नहीं अभी तक मैंने
सड़ा हुआ शीशम

- बसंत कुमार शर्मा

१ मई २०१९

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