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कभी तो द्वार खुलेंगे
जनतंत्र की सोच को समर्पित कविताओं का संकलन
    कभी तो द्वार खुलेंगे !
कभी तो निकल बाहर आएगी
स्वाभिमान के साथ फूटती चिंगारी

कभी तो धवल होंगी
वो अनकही, दबी पड़ी तीव्र इच्छाएँ
कभी तो लहलहा उठेगा
सूरज की सतरंगी रोशनी सा
हमारा वजूद !

कभी तो उठेंगे ही
ये खौफ खाए हाथ
ये जंग लगी तलवारें
कभी तो ये पैर निडर हो
चल सकेंगे
अनल उगलती राहों पर

कभी तो होगा संग्राम
धधकेंगे जीत के शोले
और बदल जाएगा मंजर !
फिर बदलेगी फिज़ाएँ
महकेगी चहुँ ओर
पलाश के फूलों सी
स्वाधीनता की महक !

तब सृजन के तार
एक सुंदर सजीला जहाँ बुनेंगे
चलो बढ़ चलो
कभी तो द्वार खुलेंगे !

-हिमांशु कुकरेती
२४ जनवरी २०११

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