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दीपावली महोत्सव
२००४

दिये जलाओ
संकलन

प्रदीपमाल

  आज भूमि पर
है कंचन दीपों का मेला
एक वर्ष के बाद पर्व यह फिर आया है
जन–संकुल मग हैं, मीनाबाज़ार लगा है
जड़–चेतन पर व्याप्त हुई मोहन माया है

हर प्रकोष्ठ–
वातायन से शिशु–हेम झाँकते
सजे तरुण तारक–समूह कर रहे इशारे
दीपशिखाओं की टोली रसमयी छबीली
झूम रही है लिए मदिर लोचन रतनारे

लक्ष्मी कर ले
स्नान भले खारे सागर में
भूमिवधू को यह हरगिज मंजूर नहीं हैं
स्वर्ण–सिंधु में इसीलिए वह नहा रही है
क्योंकि व्योमवर मिलन निकट है दूर नहीं है

तिमिर–शिविर में
खड़ी सुन रही धरा लजीली
कहता मन की बात प्रवासी नील गगन है
भू के हाथों दीप–सुमन का हार सुनहला
नभ दे रहा धरा को नीलम–जड़े वसन है

कितने भी
दुर्लंघ्य रहें अवरोध पंथ में
अवसर लेंगे खोज, मिलेंगे ही प्रणयी जन
मानव सा ही यह निसर्ग भी आज कह रहा
है प्राणों की प्यास चिरंतन प्रणय–निवेदन

—इंदुकांत शुक्ल

चार दीपक जलाना

एक दीपक जलाना तुम
पर्व के लिए
असत्य पर सत्य की विजय के लिए
सफल मित्रता की सालगिरह के लिए।
एक दीप जलाना तुम
अपने अद्भुत अहसासों,
अनोखे अनुभवों
और अलौकिक अनुभूतियों के लिए
सुखद स्मृतियों के लिए
एक दीप जलाना तुम
केवल अपने लिए
जो तुम्हारे अंदर प्रकाश भर दे
और तुम जीवन पथ पर निडर होकर
कदम दर कदम आगे बढ़ो
एक दीप जलाना तुम
विश्वास और आस्था का
और रख देना उसे
समय की देहरी पर
मेरे नाम

—मंजुल शुक्ला

रात दीवाली की है

खुलती पलकें
जगमग सपनें
रात कहीं दीवाली की है
उठे अरमान
बन कर चिंगारी
दूर कहीं
रोशन होती
रात कहीं दीवाली की है
धड़कन बन कर
'लड़ी' धड़कती
गुमसुम किसके
खयालों में तुम
रात किसी दीवाली की है

—सारिका

    

 

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