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दीपावली महोत्सव
२००४

दिये जलाओ
संकलन

अबके दीवाली

Ñ

अबके दीवाली कुछ इस तरह से आई है
बुझे अरमानों के दीप, फैली ग़मे परछाई है।

परचम आज़ादी की लेकर हुई ऐसी अगुआई है
जल उठी बस्तियां, मशाल ये कैसी जलाई है।

मुठ्ठी में जिनके थे कभी चाँद और सितारें
आज उन मासूम हाथों पर खामोशी छाई है।

तुम रोशन कर लोगे चिरागों से घर अपना
वो क्या करें जिनकी पुल के नीचे टूटी चारपाई है।

गरज उठा कहीं कुछ, चमक गई हैं दिशाएं
है आतिश या सरहद से गोली किसी ने बरसाई है।

हर गोली के बदले दीप, खून के बदले रंग
दौर–ए–गफ़लत में हमने जहाँ को राह दिखाई है।

— अमरेन्द्र

दिये जलाओ
संकलन

मशाल जलाओ

फैल रहा है पृथ्वी पर अन्धकार,
हुआ तिरोहित संसार सार,
चुरा लिया ज्ञान का प्रकाश।

खिलती आशाओं के मुख पर
इसने, जैसे हो कालिख मल दी,
पता नही चलता तिथि का, कुहरे में
हर रात चांदनी ज्यों ढलती,
रोकेगा कौन?
कैसे हो बन्द यह
उच्छृंखल, असभ्य व्यवहार।
फैल रहा है पृथ्वी पर अन्धकार।

इन दीप्तिमान तारों की क्या कथा,
ये चमक रहे हैं आकाश की गोद में,
व्यापारी जग में व्यर्थ हो गया
आंखो का जो तारा था मोद में।
अपनी छाया ने हर लिया अपना आकार।
फैल रहा पृथ्वी पर अन्धकार।

ऊंचा सिर करके जैसे अंधियार उठा,
घिर आया काजल जैसे सभी दिशाओं में,
छिपने को खोजती मौन–पहाड़ो में
भयत्रस्त भावना गहन गुफाओं में,
आदेश अंधेरे का
पृथ्वी करती शिरोधार।
फैल रहा पृथ्वी पर अन्धकार।

ऐसा कुछ करो,
न हो सके अब,
हठधर्मी अन्धकार का प्रवेश,
सूख गया है जो हृदय दीप
कर दो उसे स्नेहिल विशेष,
अब जलाओ मशाल जो जलती रहे निर्विकार।
फैल गया है पृथ्वी पर अन्धकार।

—परमानन्द शास्त्री

आई दीवाली फिर

नभ की साजिश से सरक सरक
फैला जो अंधेरा धरती पर
जोत ने इनकी घर घर रौशन किए
माटी का दिया प्राणों की बाती
अंधेरों से कालिख से ना ये डरें
विश्वास की रंगोली पे आस्था के दिए
आई दिवाली फिर शुभ संदेश लिए
मंगल थाल दीप आरती
बन्दनबार नयनों के द्वार
अहिल्या सा पाषाण अभिशप्त समाज
पांव पखारुं आओ जो तुम मेरे राम
अंधियारे ने कब हौसले परस्त किए
मन की चौखट पे आस के दिए
आई दिवाली फिर शुभ संदेश लिए
जलते दिए से प्रण थाली में
यादों–वादों के कपूर औ चंदन
सच के राम झूठ का रावन
अंधियारे में चंदा सा मानस
फरक कहाँ अब महल और वन में
सीता लक्ष्मण जो साथ राम के चले
साहस की थाली में कर्तव्य के दिए
आई दिवाली फिर शुभ संदेश लिए
रणक्षेत्र यह, कर्मक्षेत्र यह
कर्तव्य कसौटी कसता जीवन
आंसू मुस्कानों झिलमिल
जगमग नित नित जल जलकर
मन के जलते ही तो वेद कुरान बने
सपनों के आंगन यह नेह के दिए
आई दिवाली फिर शुभ संदेश लिए

—शैल अग्रवाल

परिवर्तन दीप

चमक तुम्हारी दीपावली की
हर न सकी हमारा अंधियारा,
निशां भी न निशा का पास तुम्हारे
तन्हा दीपक भी न जलता मेरे गलियारा।

तुम्हें जलाते देख दीपमालाएं
हमने भी एक दीप जलाया
बाती सूखी पल में राख बनीं
तुमने दीपावली को महीनों मनाया।

सुना है राम लौटे थे इसी दिन
रामराज्य न अबतक लौट पाया
एक तरफ है कैद सारी चांदनी
दूजी ओर तीनों तापों का साया।

तुम जीते बल्बावली की चमक में
हर गांव एक बल्ब अभी तक जा न पाया
हम दीपावली खाक मनाएं
गहराता ही जाता है यहाँ अंधियारा।

हमारे अंधियारों को कोस कोस
तुम छद्म मसीहा बनते हो
हमें तलाश है उन दीयों की
जो सब का तम हरते हों।

अब कोसो मत हमारे अंधियारे को
होगा बेहतर घर घर एक दीप दे जाओ
लौटे राम राज्य यहाँ फिर
ऐसा परिवर्तन दीप जलाओ।

—राजकिशोर प्रसाद



 

 

    

 

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