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गंगा की संध्या आरती

 

 
एक साथ
अनगिन हाथ
हिलते हैं हवा में
कपूर धूप घी की खुशबू से भीगी
झिलमिलाहट की शक्ल में
और एक धुंध-सी छँटने लगती है
कहीं भीतर दूर दूर तक

एक साथ
गूँजते हैं अनगिन स्वर
निश्चित लय और ताल में उठते गिरते
सहसा, एक चँदोवा सा
तन जाता है मेरे अस्तित्व पर

पास ही कहीं आश्वस्ति की
पदचाप सुनाई पड़ने लगती है
शंख, घंट, घड़ियाल की शक्ल में
रंग बिरंगी पंखुरियाँ-सी झरने लगती हैं
एक साथ

जादूगर के इंद्रजाल की तरह
झीने पर्दे को हटाकर
हाजिर हो जाता है
अचानक
एक सामूहिक जयघोष
और मैं पलक झपकते ही
किसी अन्य संसार में पहुँच जाती हूँ

- मृदुल जोशी
१७ जून २०१३

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