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जड़-चेतन की प्यास

 

 
हरती आई जो सदा, जड़ चेतन की प्यास।
वही तरसती बूँद को, व्याकुल विवश उदास।
व्याकुल विवश उदास, गगन की ओर निहारे।
वृक्ष हुए निर्मूल, वृष्टि के लुटे पिटारे।
कह 'मिस्टर कविराय', करुण स्वर गंगा माई।
करती आज विलाप, कष्ट जो हरती आई।

डुबकी लगते क्षार हो, जाते थे त्रयताप।
हुई कलुष ज्वर से ग्रसित, वही देवसरि आप।
वही देवसरि आप, खिलाया हमने कचरा।
सड़े गले शव फेंक, मशीनों का विष गहरा।
कह 'मिस्टर कविराय', आस्था लेती सुबकी।
हो गये पूत कुपूत, कहाँ वह पावन डुबकी।

भारत के इतिहास के, स्वर्णिम प्रष्ठ तमाम।
गंगा तेरे तीर पर, लिखे गये अविराम।
लिखे गये अविराम, धर्म ने उद्भव देखा।
स्वच्छ सुखद जलवायु, शस्य की जीवनरेखा।
कह 'मिस्टर कविराय', प्रगति की नई इमारत।
तेरे जल से सींच सींच, बनवाता भारत।

सदियों से अविरल बहे, निर्मल गंगा धार।
चोली दामन से जुड़े, कितने लोकाचार।
कितने लोकाचार, सत्य की खाते किरिया।
पिया मिलन की चाह, चढ़ाती पियरी तिरिया।
कह 'मिस्टर कविराय', जुड़ा जीवन नदियों से।
पी गंगा जल बूँद, प्राण तजते सदियों से।

गंगा थी जीवन नदी, हर लेती थी पाप।
झेल रही है आजकल, वह भीषण संताप।
वह भीषण संताप, चिढ़ाते उसको नाले,
है इस जग में कौन, पीर जो उसकी टाले।
'ठकुरेला ' कविराय, चलन है यह बेढंगा,
यमुना हुई उदास, बहाए आँसू गंगा।

मैली गंगा देखकर, बुधजन हुए उदास।
मानवता के पतन का, हुआ सहज अहसास।
हुआ सहज अहसास, सभी को भायी माया,
व्यापा सब में लोभ, स्वार्थ ने रंग दिखाया।
'ठकुरेला ' कविराय, लालसा इतनी फ़ैली,
दूषित हुआ समाज, हो गयी गंगा मैली।

भागीरथ तट पर गए, और हुए बेचैन।
गंगा की यह दुर्दशा, कैसे देखें नैन।
कैसे देखें नैन, कि मैं अमृत था लाया,
अरे मनुज नादान, नीर को जहर बनाया।
'ठकुरेला 'कविराय, मनुजता भटक गयी पथ,
होगा तब उद्धार, बनें जब सब भागीरथ।

पछताओगे एक दिन, कर यह भीषण भूल।
नदियों से दुर्भाव यह, कभी नहीं अनुकूल।
कभी नहीं अनुकूल, बड़ी मँहगी नादानी,
क्षिप्रा यमुना क्षुब्ध, क्षुब्ध गंगा का पानी।
'ठकुरेला' कविराय, स्वयं आफत लाओगे,
दूषित करके नीर, एक दिन पछताओगे।

-रामशंकर वर्मा
१७ जून २०१३

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