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गंगा थी जीवन नदी

 

 
गंगा थी जीवन नदी, हर लेती थी पाप।
झेल रही है आजकल, वह भीषण संताप।
वह भीषण संताप, चिढ़ाते उसको नाले।
है इस जग में कौन, पीर जो उसकी टाले।
'ठकुरेला ' कविराय, चलन है यह बेढंगा।
यमुना हुई उदास, बहाए आंसू गंगा।

मैली गंगा देखकर, बुधजन हुए उदास।
मानवता के पतन का, हुआ सहज अहसास।
हुआ सहज अहसास, सभी को भायी माया।
व्यापा सब में लोभ, स्वार्थ ने रंग दिखाया।
'ठकुरेला ' कविराय, लालसा इतनी फ़ैली।
दूषित हुआ समाज, हो गयी गंगा मैली।

भागीरथ तट पर गए, और हुए बेचैन।
गंगा की यह दुर्दशा, कैसे देखें नैन।
कैसे देखें नैन, कि मैं अमृत था लाया।
अरे मनुज नादान, नीर को जहर बनाया।
'ठकुरेला 'कविराय, मनुजता भटक गयी पथ।
होगा तब उद्धार, बनें जब सब भागीरथ।

पछताओगे एक दिन, कर यह भीषण भूल।
नदियों से दुर्भाव यह, कभी नहीं अनुकूल।
कभी नहीं अनुकूल, बड़ी मँहगी नादानी।
क्षिप्रा यमुना क्षुब्ध, क्षुब्ध गंगा का पानी।
'ठकुरेला' कविराय, स्वयं आफत लाओगे।
दूषित करके नीर, एक दिन पछताओगे।

--त्रिलोक सिंह ठकुरेला
१७ जून २०१३

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