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नित्य वाहिनी माँ गंगा





 

तू विरंचि की धन थी गंगे
आ शिव जूट समायी थी
धन्य हुई थी यह धरित्री
बन मोक्ष दायिनी आई थी

हिम शैल सुता पावन धारा
सघन विपिन के बीच बही
ऋषि मुनियों की सिद्ध सूत्र
बन गए तीर्थ तू जहाँ रही

थी सुरसरि बहती ले प्रवाह
मोहे कल- कल तेरा निनाद
बस एक आचमन दे जाता
अनगिनती पुण्यों का प्रसाद

मिलते हैं गरल स्रोत आ-आ
करते हैं उपद्रव मनचाहे
हाय! मनुज क्या कर बैठा
गंगा स्वयं मोक्ष को चाहे

-अनिल कुमार मिश्रा
४ जून २०१२

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