अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

होली है!!

 

वसंत की एक लहर


वही जो कुछ सुन रहा हूँ कोकिलों में
वही जो कुछ हो रहा तय कोपलों में
वही जो कुछ ढूँढते हम सब दिलों में
वही जो कुछ बीत जाता है पलों में
बोल दो यदि...

कीच से तन मन सरोवर के ढँके हैं
प्यार पर कुछ बेतुके पहले लगे हैं
गाँठ जो प्रत्यक्ष दिखलाई न देती--
किन्तु ह को चाह भर खुलने न देती
खोल दो यदि...

बहुत संभव चुप इन्हीं अमराइयों में
गान आ जाए
अवांछित, डरी सी परछाइयों  में
जान आ जाए
बहुत संभव है इसी उन्माद में
वह दीख जाए
जिसे हम तुम चाह कर भी
कह न पाए

वायु के रंगीन आँचल में
भरी अँगड़ाइयाँ बेचैन फूलों की
सतातीं---
तुम्हीं बढ़कर
एक प्याला धूप छलका दो हृदय में---
कि नीचे बेझिझक हर दृश्य इन मदहोश आँखों में
तुम्हारा स्पर्श मन में सिमट आए
इस तरह
ज्यों एक मीठी धूप में
कोई बहुत ही शोख चेहरा खिलखिलाकर
सैकड़ों सूरजमुखी-सा
दृष्टि की हर वासना से लिपट जाए !

२१ मार्च २०११

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter