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होली है!!

 

फागुन फागुन धूप

फाग बड़ा चंचल करे, काया रचती रूप।
भाव-भावना-भेद को, फागुन-फागुन धूप

फगुनाई ऐसी चढ़ी, टेसू धारें आग।
दोहे तक तउआ रहे, छेड़ें मन में फाग

भइ! फागुन में उम्र भी, करती जोरमजोर।
फाग विदेही कर रहा, बासंती बरजोर

जबसे सिंचित हो गये, बूँद-बूँद ले नेह
मन में फागुन झूमता, चैताती है देह

बोल हुए मनुहार से, जड़वत मन तस्वीर
मुग्धा होली खेलती, गद-गद हुआ अबीर

धूप खिली, छत, खेलती, अल्हड़ खोले केश।
इस फागुन फिर रह गये, बचपन के अवशेष

करता नंग अनंग है, खुल्लमखुल्ले भाव
होश रहे तो नागरी, जोशीले को ताव

हम तो भाई देस के, जिसके माने गाँव
गलियाँ घर-घर जी रहीं-फगुआ, कुश्ती-दाँव

नए रंग, सुषमा नई, सरसे फाग बहाव
लाँघन आतुर, देहरी, उत्सुक मन मृदु-भाव

सौरभ पाण्डेय
१२ मार्च २०१२

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