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होली है!!


माँ की पाती


फागुन आ गया है
पर सूखी नहीं है
उसके मन की परतों में दबी
भादों की नमी
उसको अभी जीना है
अपनी छाती पर लगी
हरियाली में अपना जीवन

फूल बतियाते हुए
खिलखिलाते हैं
और वह देखती है
कि उनकी जड़ों में रहकर
उनकी आँखों के स्वप्न

उसकी गोदी में खेला गाँव
जब रंगों में सराबोर होगा
वह टटोलेगी
अपने मन की पोटली में रखी
दुनिया की सबसे रँगीली हँसी
और पहुँच जायेगी
सात समंदर पार

अपने सारे रंग
दे देगी
सूरज की उस खिलती धूप को
अपनी आँखों की नमी से
इन्द्रधनुषी रंग गढ़ने को

धरती के आँचल में
दूध भर आएगा जब
अपनी संतानों की सोच से
तब रंग बिखेरती होली आएगी
और भीगा मन प्रश्न करेगा
यह साक्षात माँ हैं
या बेटे के नाम माँ की पाती

-परमेश्वर फुँकवाल
२५ मार्च २०१३

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