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होली है!!


फागुनी मौसम में


टेसू फूलों पे
जब रसवंती फागुन
चिड़िया सा चहकता है
तब मन के फीके रंग
हवाओं के संग मिल
सतरंगी हो जाते हैं

जाने क्यों तब फागुन की
हर भोर में- चिड़ियों के
कंठों से निकला
एक एक स्वर
मैं लपक लेती हूँ और
पाती हूँ कि
सच में मेरी जिंदगी
फूल सा खिल उठा है

मैं सोचने लगती हूँ कि
धरती भी तो
फागुनी रंगों सी
अलग अलग रंग दिखाती है
हमें जीना सिखाती है
तभी शायद मैं हर शाम
थके लाल सूर्य के गोलों को
तपते देखती हूँ और
हैरान होती हूँ कि
उसके श्रम से टपकी सिन्दूरी बूँदे
सागर में घुलते ही जाने कैसे
जीवन की लय बन जाती है
मन में समां गुनगुनाता है

तब गाहे बगाहे सोचती हूँ कि
किस तरह समय का
मौसमी सूरज
पृथ्वी की हथेलियों पर
मेंहदी की तरह रंग छोडता है
जीवन के आकाशी
पहियों पर दौड़ता है

तब मैं भी उत्साह से भर
धरा से रंग बटोर के
कविता की फुलकारी
बुनने लगती हूँ,

भावनाओं की कलम को
रंगों की स्याही में डूबो
फागुनी मौसम में
आशा के इन्द्रधनुषी
गीत गुनने लगती हूँ !

डॉ सरस्वती माथुर
१७ मार्च २०१४

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