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फागुन के अनुरागी छंद

फूले फिर नव पलाश मौलश्री गंध
फागुन ने बाँचे हैं अनुरागी छंद

पढ़कर ये भँवरे की प्रेम पगी पाती
आँचल की ओट लिए कलियाँ सकुचातीं
तोड़ती उमंगें फिर संयम के बंध।

मंद -मंद पुरवाई लेती अंगड़ाई
पी का संदेशा ले फिर कोयल आयी
जोड़ रही चुपके से टूटे अनुबंध।

तैर रहे आँखों में बासंती सपने
प्रीति कलश पनघट का राग लगे जपने
करती है बेसुध ये मादक मकरंद।

सूनी सी भित्ती पर उभरी फिर चित्रकला
दुष्यन्ती मौसम ने लगता फिर आज छला
शाकुन्तल आखों के टूटे तटबंध।

- मधु शुक्ला
२ मार्च २०१५

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