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रंग अबीर गुलाल

तारकोल, कीचड़ सने, चेहरे रूप-कुरूप
होली में सब एक-से, रंक, भिखारी, भूप

होली खूनी हो गई, रक्त सने हैं पाँव
कान्हा अब आना नहीं, लौट के अपने गाँव

मँहगाई के भार से, चलना बहुत मोहाल
फीका है इस बार भी रंग, अबीर, गुलाल

फागुन को ऐसी चढ़ी, गाढ़ी भंग-तरंग
मार रहा पिचकारियाँ, भर-भर नाना रंग

कहीं न कोई दुखी हो, रहे न रंच मलाल
फागुन ऋतु का डाकिया, बाँटे रंग गुलाल

तन ही तन झूमा किए, मन की लुप्त तरंग
रंग गए खेले बहुत, चढ़े न कुछ भी अंग

कहीं न कोई दुखी हो, रहे न रंच मलाल
फागुन ऋतु का डाकिया, बाँटे रंग गुलाल

- गुण शेखर
१५ मार्च २०१६

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