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रंग का वातावरण

नेह की पगडंडियों पर
फागुनी पदचाप सुनकर
रंग वासन्ती मदन की
आहटें देने
लगा है।

चूनरों पर इन्द्रधनु के
रंग फिर बिखरे हुए हैं
उत्सवों में सौख्य रस के
रंग भी गहरे हुए हैं।

प्रीति की अमराइयों में
तारसप्तक छेड़कर
बाँसुरी के होंठ छूकर
रंग प्रतिपल
भीगता है।

रंग झलके, खेत में अब
द्वार पर भी, अलगनी पर
चिट्ठियों ने प्रेम बोये
रंग गहरे छींटकर

रंग लिपटा अंग से तो
मन भरा फिर रंग से
रंग में ही डूबकर तब
स्वप्न हल्दी
हो उठा है।

पर्वतों से घाटियों तक
रंग का वातावरण है
पुष्प सी सुंदर धरा पर
रंग का ही आवरण है।

लाज से बोझिल नयन में
रंग की स्वप्निल बुनावट
रंग की अपनी कला में
रंग का चित्रण
नया है।

- अवनीश त्रिपाठी
१५ मार्च २०१६

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