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जब केसरिया हरे मिलेंगे

रंग भरेंगे पिचकारी में
प्रेम-दया-सद्भाव के।
दहन करेंगे इस होली में
भाव सभी टकराव के।

भूख-ग़रीबी, भय-लाचारी
मिटे भ्रष्टता की बीमारी।
अविचल-अटल तिरंगे नीचे
स्वर्णिम-युग की दावेदारी।

देख रहे सतरंगी सपने
कम हों दिवस अभाव के!

समरसता के शोषक हैं जो
हिंसा के उद्घोषक हैं जो।
उनको भी बासंती कर दें
काले रंग के पोषक हैं जो।

बहुत हुआ अब नहीं सहेंगे
नारे विष-विलगाव के!

श्वेत रंग से हृदय धुलेंगे
अपनेपन से भरे मिलेंगे।
विजय-चक्र की गाथा गढ़ते
जब केसरिया-हरे मिलेंगे।

गाएँगे समवेत सुरों में
गीत सरस समभाव के!

- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर
१५ मार्च २०१६

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