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फागुन से फरियाद

सुनो पलाश, इस फरवरी में
जब...
तुम छितराये रहते हो, अनन्त से
मेरी छत की मुंडेर तक
और खिलने लगते हैं
धरती की अनन्त गहराई में
धधकते ज्वालामुखी के फूल
तुम्हारी टहनियों पे
इस्स! उचट जाता था मन किताबों से
झुकती थी मुंडेर के सिरे को पकड़ के
बार बार गिरने की हद तक
तुम्हें छूने के लिये...
सम्हाल जाती थी अम्मा की डाँट
किसी को पता नही पलाश
अम्मा को भी नही..!
तुम्हे छुआ था मैंने फरवरी में...
तब...
मेरे एड़ियों को चूमता
सुनहली किनारी वाला नीला स्कर्ट
फहराने लगा था घुटनों पे
उफ़! तुम्हारा दहकता मादक स्पर्श
लहक उठी थीं उँगलियाँ मेरी...
ललचा गई थीं शायद
गहराई में धधकती ज्वालामुखी तरंगें...
दौड़ पड़ी थी सिंचित करने
नव यौवन को...
खिल गए थे हजारों दहकते पलाश...
मल गया था कोई, मेरे गालों पे
होरी से पहले सिंदूरी फाग...
इक्कीस फरवरियाँ बीत गईं, पलाश!
अब...
रक्त शून्य से हो चले मेरे गाल
खो गया है कुम्भ के मेले में
जरी किनारी वाला नीला स्कर्ट
लायक बिटिया को अम्मा नहीं डाँटती..
तरंगें शायद न ललचायें इस बार
फिर भी पलाश...
तुम्हें ही झुकना होगा इस बार
मेरी छत की मुंडेर तक
आओ न पलाश...खेल लें फिर फाग
होरी से पहले इस फरवरी में...

- सुनीता सिंह 
१ मार्च २०१७

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