| 
 
	 | 
 
   | 
 
 
  दुविधा में है 
	गाँव  | 
  
 
 
 
 
 
  | 
 
 
																								              
						दुविधा में है गाँव समूचा 
						चढ़ा हुआ फागुन है 
						होली क्या खेले, देवर की 
						भौजी से अनबन है 
						 
						छोटे बड़े अलग हैं 
						बुढ़िया–बूढ़े हुये अलग 
						फागुन में भी बाबा देवर 
						नहीं रहे हैं लग 
						 
						घर जैसे उजड़ा–उजड़ा है 
						महका–महका वन है 
						 
						सदियों से मौसम से थे 
						अपने अच्छे संबंध 
						बात हुई क्या सबकी सबसे 
						बोलचाल है बंद? 
						 
						चौरे पर है शान्ति, दुखी 
						पीपल बाबा का मन है 
						 
						चलो नेह के धागे जोड़ें 
						पुन: पिरोयें प्यार 
						रंग खिले फिर, फाग छिड़े फिर 
						झूम उठे त्यौहार 
						 
						गालों पर गुलाल का आखिर 
						अपना आकर्षण है 
						  
						– रविशंकर मिश्र “रवि” 
						१ मार्च २०१७ | 
  
  
 
  | 
  
  
  |      
 |